दुनिया के लिए कितने खतरनाक हैं ट्रम्प ?

The American President has implemented his 'America First' policy in his estimation, since the continuation of uncertainty in the world has deepened. Because of this, both his colleague and the opponent have been in concern.

But has Trump's policy, that is, due to trumpolmacy, the world has become a more dangerous place?

अगर आप ग़ौर से देखें तो पता चलेगा कि असल में ऐसा नहीं है. राष्ट्रपति ट्रंप के फ़ैसलों से ख़ासकर सोशल मीडिया और ट्विटर पर डर का माहौल ज़रूर दिखा है लेकिन उन्होंने जिन सहयोगियों के बारे में सवाल उठाए हैं उन्होंने उनके साथ संबंधों को ख़राब नहीं किया है.


उन्होंने कोई नई जंग भी शुरू नहीं किया है और देखा जाए तो काफी हद तक उन्होंने अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा की राह पर चलने की कोशिश की है. उनके फ़ैसलों से कुछ हलचल ज़रूर हुई है लेकिन उन्होंने किसी चीज़ को अब तक तबाह नहीं किया है.



ट्रंप इराक़ और सीरिया में कथित इस्लामी चरमपंथी समूह इस्लामिक स्टेट को लगभग समाप्त कर चुके हैं. इस्लामिक राज्य की स्थापना करने के उद्देश्य से काम करने वाला ये समूह ख़त्म हो चुका है और इसके बचे-खुचे लड़ाके अब ख़ुद को बचाने में जुटे हैं.

ये मान सकते हैं कि ये समूह अब दुनिया के कई देशों में फैल चुका है और ये ब्रैंड अतिवादियों को हिंसा करने के लिए प्रेरित भी करता है. लेकिन ये भी सच है कि इसका केंद्र अब सशक्त नहीं रहा और इस कारण इसका ख़तरा भी अब पहले जैसा बड़ा गंभीर नहीं है.


आप इस बात पर चर्चा कर सकते हैं कि इसका श्रेय ट्रंप को लेना चाहिए या उन्होंने सिर्फ़ बराक ओबामा का अधूरा काम ही पूरा किया है. उन्होंने ओबामा की ही राह पर आगे कदम बढ़ाए हैं.

उन्होंने स्थानीय स्तर पर युद्ध कर रहे सैनिकों को हथियार मुहैया कराए हैं, हवाई और ज़मीनी हमले भी तेज़ कराए हैं. उन्होंने इस अभियान को तेज़ी से आगे बढ़ाया है और अमरीकी कमांडरों को फ़ैसले लेने के अधिक अधिकार दिए हैं.

इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ काम कर रहे वैश्विक गठबंधन के लिए स्पेशल राजदूत ब्रैट मैक्गर्क ओबामा और ट्रंप दोनों के ही साथ काम कर चुके हैं. उनका कहना है कि "इस अभियान में इसका बड़ा योगदान रहा है."

इसे ट्रंप की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता माना जाता है.

साल भर पहले ईरान के परमाणु अभियान के कारण पैदा हुए ख़तरे के बाद उस पर लगाम लगाने के लिए अमरीका और विश्व की पांच और शक्तियों ने ईरान के साथ एक समझौता किया.

बड़े पैमाने पर देखें तो ये समझौता कारगर भी था लेकिन ट्रंप का कहना है कि इसमें कई दिक्कतें हैं, जिन्हें "दुरुस्त करना" ज़रूरी है. वो अब इसे ख़ारिज करने की धमकी दे रहे हैं. उनका कहना है कि जिन यूरोपीय देशों ने ये समझौता करने में मदद की थी वो कड़ा रुख़ अख्तियार करें.


'यमन में विद्रोहियों को मिसाइल दे रहा है ईरान'

ट्रंप परमाणु हथियारों पर स्थायी रूप से प्रतिबंध लगाना चाहते हैं ताकि ईरान के बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम को रोका जा सके और ईरान की 'नुक़सान पहुंचाने वाली' उन हरकतों को रोका जा सके जो इस समझौते में शामिल नहीं हैं.

ये वो कुछ चीज़ें हैं जिन पर यूरोपीय देशों को फ़ैसला लेना ज़रूरी है लेकिन इससे परमाणु समझौता कतई कमज़ोर नहीं होना चाहिए.

इस समझौते के रद्द होने के तीन बड़े ख़तरें हैं - मध्यपूर्व में अधिक अस्थिरता (ख़ास कर तब जब ट्रंप ईरान के क्षेत्रीय प्रतिद्वंदी सऊदी अरब के अधिक करीब हैं), द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक सुरक्षा में अहम भूमिका निभाने वाले ट्रांस-अटलांटिक समझौते का कमज़ोर हो जाना.

संयुक्त राष्ट्र में निरस्त्रीकरण अधिकारी के तौर पर काम कर चुकीं एंग्ला केन कहती हैं कि इसका असर परमाणु निरस्त्रीकरण संधि पर भी असर पड़ सकता है जो ईरान के साथ हुए समझौते का आधार था.



उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग-उन ने परमाणु हथियार बना कर और अमरीका को उनकी धमकी दे कर दुनिया को अधिक ख़तरनाक जगह बना दिया है.

लेकिन ट्रंप ने उनकी हर बात का जवाब दे कर इस पूरे माहौल को ही ख़तरनाक़ बना दिया है जिससे अब अचानक ही युद्ध या हमले की आशंका बढ़ गई है.

कभी वो अमपानजनक और धमकी भरे ट्वीट करते हैं, तो कभी बातचीत करने की अपनी इच्छा ज़ाहिर करते हैं. फिलहाल वो दूसरे मूड में हैं और विंटर ओलंपिक के चलते उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच चल रही वार्ता का समर्थन कर रहे हैं.

ट्रंप प्रशासन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी समर्थन भी हासिल किया है ताकि उत्तर कोरिया पर परमाणु हथियारों को छोड़ने के लिए दवाब बनाया जा सके.


जॉर्ज डब्ल्यू बुश के प्रशासन में डिप्टी सेक्रेटरी के तौर पर काम कर चुके जॉन नेग्रोपॉन्ट कहते हैं कि इससे पता चलता है कि ट्रंप दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

वो कहते हैं, "लोग उनसे ख़फ़ा हैं क्योंकि उन्होंने किम जोंग-उन को 'रॉकेट मैन' कहा और इससे दुनिया को ख़तरा हो गया. बस भी कीजिए. लाठियों और हथियारों से नुकसान होता है, शब्दों से नहीं."

सेंटर फॉर अ न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी में एशिया के एक विशेषज्ञ पैट्रिक क्रोनिन कहते हैं, ट्रंप का किसी एक बात पर स्थिर ना रहना सही है. वो कहते हैं, "किम जोंग-उन को लगता है कि हम शक्ति का इस्तेमाल नहीं करेंगे और इस तरह के तनाव में ट्रंप के बयान बिल्कुल सही हैं, आप चाहे इन्हें बचकाने तरीके ही कहें. "

लेकिन 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट के बाद से ये पहली बार है जब अमरीका ने किस देश को परमाणु हमले की चेतावनी दी है.

ये अपने आप में एक ख़तरनाक़ कदम है.



हाल में हवाई में मिसाइल हमले की ग़लत चेतावनी जारी कर दी गई थी. लेकिन ये चेतावनी कर्मचारी के ग़लत बटन दबाने की वजह से जारी हुई थी.

बिल क्लिंटन प्रशासन में सेक्रेटरी रह चुके विलियम पेरी शीत युद्ध और ग़लत चेतावनियों के बारे में जानते हैं. वो कहते हैं कि ख़तरा अब लौट आया है. वो कहते हैं, "अमरीका और रूस एक दूसरे का साथ आक्रामक तेवर लिए नज़र आ रहे हैं और इस कारण कोल्ड वॉर का ख़तरा फिर से लौट आया है."

लेकिन ये केवल रूस और अमरीका की ग़लती नहीं है क्योंकि दोनों ही अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं और कोल्ड वॉर का ख़तरा बढ़ रहा है.


रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने हाल में यूक्रेन में अपना हस्तक्षेप बढ़ाया है. ओबामा प्रशासन के दौरान दोनों राष्ट्रपतियों ने आपस में बात करना बंद कर दिया था.

ट्रंप पुतिन से बात करना चाहते हैं लेकिन वो ऐसा नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि अमरीकी राष्ट्रपति चुनावों में रूस के कथित हस्तक्षेप को लेकर अमरीका में विरोध हो रहा है.

विडंबना ये है कि दोनों देशों के रिश्ते ओबामा के दौर से भी निचले स्तर पर हैं. और इसे चेतावनी के तौर पर लिया जाना चाहिए.



ट्रंप ने पहले ही साफ़ कर दिया है कि वो राजनयिकों की जगह जनरलों को अधिक तवज्जो देते हैं.

उन्होंने विदेश विभाग के बजट में कटौती का प्रस्ताव दिया है और उनके ही दौर में राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधी फ़ैसले लेने में विदेश विभाग का दख़ल कम हुआ है.

9/11 के हमलों के बाद से अमेरिकी विदेश नीति का सैन्यकरण हो रहा है. ट्रंप ने इस प्रक्रिया को तेज़ किया है. ऐसा दिखता नहीं कि ट्रंप को कूटनीति की अधिक समझ है या वो इसके बारे में कोई चिंता है.

एक बार फ़ॉक्स न्यूज़ में एक कार्यक्रम के दौरान विदेश विभाग में खाली पड़े स्थानों के बारे में उनसे पूछा गया था तो उन्होंने इसके जवाब में कहा था, "सिर्फ मैं ही हूं जो महत्वपूर्ण है."

कूटनीति एक तरह से स्वास्थ्य सेवा की तरह है, इससे कई बिमारियों से बचा जा सकता है. इसके कमज़ोर होने पर तनाव बढ़ने या युद्ध की आशंका बढ़ जाती है.



वैश्विक समस्याओं को साथ में सुलझाने की कई अंतरराष्ट्रीय कोशिशों से यानी समझौतों से अमरीका बाहर निकलने की राह अपना रहा है. पेरिस जलवायु समझौते से अमरीका का बाहर निकलना अब तक का उनका सबसे चर्चित फ़ैसला रहा है.

ये बात सच है कि समझौते से बाहर जाने की प्रक्रिया में चार साल लगते हैं लेकिन अमरीका और कई निजी कंपनियां स्वच्छ ऊर्जा की अपनी योजनाओं पर काम करना शुरू कर चुकी हैं.

लेकिन ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए अमरीका जो कर सकता था अब वह वो नहीं करेगा.

मोटे तौर पर, ट्रंप की 'अमरीका फर्स्ट नीति' के कारण उन गठबंधन और समझौतों पर असर पड़ रहा है जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से दुनिया में शांति बनाए रखने की कोशिशें कीं.

ट्रंप कम से कम अमरीका के नेतृत्व लेने वाले पारंपरिक भूमिका से पीछे हट रहे हैं.

'द अटलांटिक' में काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स के रिचर्ड हैस लिखते हैं, कि अगर अमरीका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए समझौतों से हटने की फ़ैसला करता है तो उनकी जगह कोई और देश नहीं ले सकता.


आप कह सकते हैं कि ट्रंप 'अमरीका फर्स्ट' की अपनी नीति से कम और अपने अस्थिर व्यक्तित्व से अधिक प्रेरित हैं.

Due to this, there has been a major impact on US foreign policy, which now comes through tweets and often does not match the views of top officials of the administration.

Trump supporters say that the uncertainty of their tweets on international issues can be beneficial or they should be ignored.

And this is not right - the world is already in a period of uncertainty and the White House's uncertainty does not look right.

This is dangerous. (Source BBC)
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