सर सैयद अहमद ख़ान : एक इतिहास


  सर सैयद अहमद ख़ान ( سید احمد خان بہا در‎‎ - 17 अक्टूबर 1817 - 27         मार्च  1898) हिन्दुस्तानी शिक्षक और नेता थे जिन्होंने भारत के मुसलमानों   के  लिए आधुनिक शिक्षा की शुरुआत की!उन्होने मुहम्मदन एंग्लो-   ओरिएण्टल  कालेज की स्थापना की जो बाद में विकसित होकर अलीगढ़   मुस्लिम विश्वविद्यालय बना उनके प्रयासों से अलीगढ़ क्रांति की शुरुआत   हुई, जिसमें शामिल मुस्लिम बुद्धिजीवियों और नेताओं ने भारतीय   मुसलमानों को शिक्षित बनाने का आह्वान किया। सय्यद अहमद खान ईस्ट   इण्डिया कम्पनी में काम करते हुए काफ़ी प्रसिद्ध हुए। सय्यद अहमद १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय ब्रिटिश साम्राज्य के वफादार बने रहे और उन्होने बहुत से यूरोपियों की जान बचायी।बाद में उस संग्राम के विषय में उन्होने एक किताब लिखी: असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द, जिसमें उन्होने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना की। ये अपने समय के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम नेता थे। उनका विचार था कि भारत के मुसलमानों को ब्रिटिश सरकार के प्रति वफ़ादार नहीं रहना चाहिये। उन्होने उर्दू को भारतीय मुसलमानों की सामूहिक भाषा बनाने पर ज़ोर दिया।

1857 की क्रांति के बाद के भारत का माहौल वही था, जो मधुमक्खियों के छत्ते का होता है. आग लगने के बाद. ब्रिटिश राज ने इसी माहौल में हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने की पूरी कोशिश की थी. पहले तो दिल्ली में सिर्फ मुसलमानों को मारा गया. कहा जाता है कि एक ही दिन में 22 हजार मुसलमानों को फांसी दे दी गई. फिर 10-15 साल बाद पॉलिसी चेंज कर दी गई. अब मुसलमानों को फेवर किया जाने लगा. पर मॉडर्न बनाने के लिये नहीं. सदियों के सड़े-गले नियमों के साथ ही जीने के लिये बढ़ावा दिया जाने लगा. सैयद अहमद खान ने इसी माहौल में पहले तो खूब पढ़ाई की. फिर मुसलमानों को इस स्थिति से बाहर निकालने के लिये कोशिश करने लगे. अब उनको अंग्रेज और इस्लाम के ठेकेदार दोनों से निबटना था.

मुगल राज खत्म होने के बाद मुसलमान समाज का अपर क्लास अस्तित्व बचाने के लिये लड़ रहा था. वहीं लोअर क्लास जो कि कारीगर था, ब्रिटिश इंडस्ट्रियल सामान के मार्केट में आने से बेरोजगार हो रहा था. उधर बंगाल में राममोहन राय और उनके बाद के लोगों के कामों के चलते हिंदू समाज पढ़-लिख के नौकरियों में आ रहा था. तो अपने बादशाहों की शानो-शौकत को याद कर आहें भरने के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा था मुस्लिम समाज को.

सैयद अहमद खान ने इसके लिये एक प्लान बनाया. साइंटिफिक सोसाइटीज, एजुकेशनल इंस्टीट्यूट चलाने शुरू किये. साइंटिफिक चीजों का अनुवाद होने लगा. मैगजीन आने लगी, जिसमें सोशल रिफॉर्म पर बात हो रही थी. तरीका यही था कि अचानक से सब कुछ बदलने की बात ना कर ट्रेडिशन और मॉडर्निटी दोनों को एक साथ रखा जाये. और धीरे-धीरे बदला जाये.


अब अगर इस चीज को आज के नजरिये से देखें, तो यही लगेगा कि सैयद अहमद खान परंपरा को तोड़ने से डरते थे. फूंक-फूंक कर कदम रखते थे. अंग्रेजी राज के हिमायती थे. 1857 में कहां थे. कांग्रेस से चिढ़ते क्यों थे. औरतों के मामले में इस्लाम के ठेकेदारों से दो-दो हाथ करने में डरते थे. पर ऐसा नहीं था. उस वक्त की स्थिति आमूल-चूल बदलाव लायक नहीं थी.

सैयद अहमद खान दोषी थे अपनी बात को प्यार से कहने के. क्योंकि वो सबसे लड़ना नहीं चाहते थे. ये उनका स्वभाव था. क्योंकि जब सर विलियम मियर ने Life of Mahomet लिख के इस्लाम के खिलाफ लिखा, तो सैयद अहमद खान ने गोलियां नहीं चलाईं बल्कि उनके दावों पर बहस करने इंग्लैंड गये.

सैयद अहमद खान का सबसे बड़ा योगदान था अलीगढ़ आंदोलन. 1859 में उन्होंने मुरादाबाद में गुलशन स्कूल खोला. 1863 में गाजीपुर में विक्टोरिया स्कूल खोला. 1867 में मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल स्कूल खोला. उसी दौरान वो इंग्लैंड भी गये. और वहां की एजुकेशन से बड़े प्रभावित हुये. लौटने के बाद अपने स्कूलों को वैसा ही बनाने की कोशिश करने लगे. ये स्कूल 1875 में कॉलेज बन गया. सैयद की मौत के बाद 1920 में ये यूनिवर्सिटी बन गया.

सैयद अहमद खान एक और जगह फंसे थे. उनका मानना था कि अपने हक के लिये मुसलमानों को अंग्रेजों के साथ मिलकर रहना चाहिये. य़े चीज उस वक्त के लोगों को नागवार गुजरती थी, क्योंकि लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने में बहुत कुछ गंवा दिया था. सैयद ने इस अंतर को पाटने के लिये दो पैंपलेट भी लिखे. Loyal Muhammadans of India और Cause of Indian Revolt. बाइबल पर भी लिखा जिसमें ये बताने की कोशिश की कि इस्लाम और क्रिश्चियनिटी काफी क्लोज हैं. फिर उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस जॉइन करने से मना भी किया. खुद को ऑफर मिलने के बाद भी नहीं गये. वजह दी कि पहले पढ़ाई जरूरी है. जब तक ब्रिटिश सिस्टम को समझेंगे नहीं, पार्टिशिपेट कैसे करेंगे.

सैयद का पूरा फोकस था मुस्लिम समाज को पढ़ाई के जरिये बदलने पर. किसी से गिला-शिकवा ना रहे. बल्कि अपने दम पर सब कुछ हासिल किया जाये. अगर ध्यान से देखें तो यही एप्रोच आज भी जरूरी है. अगर ISIS और आतंकवाद से निबटना है तो. पर सैयद को अपने जीवन में ही मात खानी पड़ी. इकबाल पैदा हो चुके थे. और ये ले के आये वीर-रस की बातें. दीन-ईमान की बातें. शेर-ए-दिल बनने की बातें. वतनपरस्ती की बातें. ये बातें सुनने में अच्छी तो थीं पर साइंस और रीजन से दूर थीं. बेहद इमोशनल और उत्तेजित करने वालीं. धीरे-धीरे इकबाल मुसलमानों में लोकप्रिय होते गये और सैयद अहमद खान पीछे छूटते गये.

कोई चाहे कुछ भी कहे, सैयद अहमद खान ने मुसलमानों के लिये जो सोचा था, वो कोई सोच नहीं पाया है. आज भी इंडिया में मुसलमान नेता के नाम पर लोग तो हैं पर उस टक्कर का कोई नहीं है.


ईस्ट इंडिया कंपनी में बतौर क्लर्क नौकरी करते हुए सैयद अहमद खान ने 1857 के ग़दर पर अपनी किताब ‘असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिंद’ में सीधे-सीधे तौर पर अंग्रेजों को ज़िम्मेदार ठहराया था. यहां एक बात समझने की है. अंग्रेज़ों को लगता था बगावत की आग मुग़ल दरबार में ऊंचे ओहदों पर बैठे मुसलमानों ने लगाई है. सैयद ने अंग्रेजों पर हिंदुस्तानी संस्कृति की अनदेखी करते हुए रियासतों को हड़पने का इल्ज़ाम लगाया. उन्होंने यह भी कहा कि अंग्रेजों को अपने राजकाज में मुसलमानों की भर्ती करनी चाहिए जिससे ऐसे ‘उत्पात’ फिर न हों.

अंग्रेजों ने मुसलमानों को इसलिए ज़िम्मेदार माना था कि एक आईसीएस अफ़सर विलियम हंटर ने उन पर एक रिपोर्ट पेश की थी. रिपोर्ट के मुताबिक ग़दर इसलिए हुआ था कि इस्लाम किसी रानी या राजा की ताक़त को स्वीकार नहीं करता, लिहाज़ा, मुसलमान शासक रानी विक्टोरिया के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए. उधर, सैयद को इस बात का बेहद अफ़सोस रहा कि मुग़ल जो इस मुल्क पर शासन करने के लिए बने थे, वे एक रोज़ यूं बेगाने कर दिए गए. चुनांचे, अपनी किताब की एक प्रतिलिपि, यानी कॉपी उन्होंने बरतानिया सरकार को इंग्लैंड भेजी.

जैसी संभावना थी, वही हुआ. कुछ हुक्मरानों ने उन्हें लानत-मलामत भेजी और कुछ अफ़सरों ने उनकी बात को माना. पर जो भी हो, अंग्रेजों ने उनकी किताब को बैन नहीं किया और सैयद साहब ने इसे उनकी दरियादिली समझा. उन्होंने एक और किताब लिखी. इसमें उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की, के इस्लाम और ईसाई मज़हब एक दूसरे के बेहद नज़दीक हैं. वे अंग्रेजों के ज़ेहन से मुसलामानों के प्रति दुराग्रह को मिटाना चाहते थे

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना

इसमें कोई दोराय नहीं कि सैयद अहमद खान उस दौर के सबसे ज़हीन इंसानों में से एक थे. गणित, चिकित्सा और साहित्य कई विषयों में वे पारंगत थे. इस बात की गवाही मौलाना अबुल कलाम का वह भाषण है जो उन्होंने 20 फ़रवरी,1949 को एएमयू में दिया था. उन्होंने कहा था, ‘मैं मानता था, मानता हूं कि वे (सैयद अहमद) 19वीं शताब्दी के सबसे महान इंसानों में एक थे.’ उनका यह भी मानना था कि जो हैसियत बंगाल और हिंदुओं के बीच राजा राम मोहन रॉय की थी, वही कद सैयद अहमद खान का उत्तर भारत में और ख़ासकर मुसलमानों के बीच था. आज़ाद यहीं नहीं रुके. उन्होंने सैयद खान को भारतीय मुसलामानों के सामाजिक संघर्ष का झंडाबरदार बताया.
Sar Sayed Ahmad Khan

सैयद अहमद खान को लगने लगा था कि हिंदुस्तान के मुसलमानों की ख़राब हालत की वजह सिर्फ उनकी अशिक्षा नहीं बल्कि यह भी है कि उनके पास नए ज़माने की तालीम नहीं. लिहाज़ा, वे इस दिशा में कुछ विशेष करने की लगन के साथ जुट गए. उनकी इस लगन का हासिल यह हुआ कि जहां भी उनका तबादला होता, वहां वे स्कूल खोल देते. मुरादाबाद में उन्होंने पहले मदरसा खोला, पर जब उन्हें लगा कि अंग्रेजी और विज्ञान पढ़े बिना काम नहीं चलेगा तो उन्होंने मुस्लिम बच्चों को मॉडर्न एजुकेशन देने के लिए से स्कूलों की स्थापना की.

फिर उनका तबादला अलीगढ़ हो गया. वहां जाकर उन्होंने साइंटिफ़िक सोसाइटी ऑफ़ अलीगढ़ की स्थापना की. हिंदुस्तान भर के मुस्लिम विद्वान अलीगढ़ आकर मजलिसें करने लगे और शहर में अदबी माहौल पनपने लगा. उन्होंने ‘तहज़ीब-उल-अखलाक़’ एक जर्नल की स्थापना की. इसने मुस्लिम समाज पर ख़ासा असर डाला और यह जदीद (आधुनिक) उर्दू साहित्य की नींव बना. मौलाना आज़ाद ने कभी कहा था कि उर्दू शायरी का जन्म लाहौर में हुआ, पर अलीगढ़ में इसे पनपने का माहौल मिला. इससे हम समझ सकते हैं कि सैयद अहमद खान का योगदान कितना बड़ा है.

सैयद अहमद खान ने अंग्रेज़ी की कई किताबों का उर्दू और फ़ारसी में तर्जुमा करवाया. इस्लाम की कुरीतियों पर छेनी चलाई. वे काफ़िर कहलाये गए. उनके सिर पर फ़तवा जारी हुआ. इन सबकी फ़िक्र किये बगैर वे सिर्फ़ एक ही बात बोलते, ‘जो चाहे मुझे नाम दो, कोई परवाह नहीं, अपनी औलादों पर रहम खाओ, स्कूल भेजो. वरना पछताओगे.’

वे इस कदर जुनूनी हो गए थे कि मुसलमान बच्चों स्कूलों के निर्माण के लिए पैसा इकट्ठा करने की खातिर उन्हें नाटक करना या ग़ज़ल गाना भी गवारा था. वे मुसलमानों से अक्सर कहा करते कि दुनिया को इस्लाम के बजाय अपना चेहरा दिखाओ, यह दिखाओ कि तुम कितने तहज़ीब-याफ़्ता, पढ़े-लिखे और सहिष्णु हो.

1875 में उन्होंने मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की. यही बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कहलाया. सैयद अहमद खान इसे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की तर्ज़ पर आगे ले जाना चाहते थे पर फिर उन्हें सिर्फ एक कॉलेज से ही संतुष्ट होना पड़ा.

हिंदू मुस्लिम बंटवारे के पैरोकार ? (वाद-विवाद)

सैयद अहमद खान को लगता था कि मुसलमान हिंदुओं से हर लिहाज़ से बेहतर हैं. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब हिंदी और उर्दू के बीच वर्चस्व की लड़ाई छिड़ी तो उन्होंने हिंदी को ज़ाहिलों की ज़ुबान बताया. दूसरी तरफ मदन मोहन मालवीय जैसे दिग्गज लोग उर्दू को विदेशी ज़ुबान मानते थे. दोनों ही तरफ़ के लोग भूल गए कि ज़ुबानें महज़बों की नहीं इलाक़ों की होती हैं. अगर देखा जाए, हिंदी-उर्दू के वर्चस्व की लड़ाई थोथे राष्ट्रवाद का पहला परिणाम थी.

सैयद अहमद खान ने एक मर्तबा कहा था कि जब हिंदुस्तान से अंग्रेज़ मय साज़ो-सामान रुख़सत हो जायेंगे तब यह मान लेना कि सिंहासन पर हिंदू और मुसलमान एक साथ काबिज़ होंगे, महज़ लफ्फाज़ी है. उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों का संघर्ष तब तक ख़त्म नहीं होगा, जब तक कोई एक दूसरे पर जीत न पा ले. शायद यहीं द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की बात हो जाती है. पर वहीं खुशवंत सिंह जैसे भी लोग थे जो यह मानते थे कि भारत के बंटवारे की नींव लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने रखी थी.

मौलाना आज़ाद ने एक बार अपने भाषण में सैयद अहमद खान के राजनीतिक ख़यालात को हिंदुस्तान के लिए सबसे बड़ी ग़लती की उपमा दी थी. उन्होंने कहा था कि शिक्षा और सामाजिक कार्यों की आड़ में सैयद अहमद खान ने जो राजनैतिक एजेंडा चलाया उसके लिए वे उन्हें कभी माफ़ नहीं कर सकते. मौलाना आजाद को लगता था कि सैयद अहमद खान के विचारों ने भारतीय मुसलामानों के एक धड़े को ग़लत दिशा में सोचने पर उकसा दिया और जिसका परिणाम बंटवारा था.

यह बात सही है. मोहम्मद अली जिन्ना ने जब आजादी के वक्त बंटवारे की दलील दी थी. तो यहीं कहा था कि हिंदू और मुसलमान न पहले साथ रहे हैं और न आगे रह पाएंगे. सो जिस अलीगढ़ मूवमेंट के ज़रिये सैयद अहमद खान ने देश में मुसलमानों के उत्थान के काम किये थे, वहीं से इंडियन मुस्लिम लीग का जन्म हुआ था. बाकी इतिहास है.

कभी-कभी कुछ बनने में कुछ बिगड़ने की तामीर भी छिपी होती है. इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करने वाले एओ ह्यूम ने क्या कभी सोचा था कि उनके द्वारा बनाई गयी पार्टी भारत को अंग्रेज़ों से दूर कर देगी?

इस पर ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि विलियम हंटर की रिपोर्ट ही भारत के बंटवारे की जड़ बनी थी. सैयद अहमद खान ने इस रिपोर्ट पर यकीन कर लिया था. यहां एक बात और कहने की है और वह यह कि इससे कुछ साल पहले जॉन स्ट्रेची ने ‘इंडिया’ नाम के शीर्षक से एक क़िताब लिखी थी. इसमें भारत को एक देश न कहते हुए इसे कई देशों का महाद्वीप कहा गया था. मुसलमानों के बारे में स्ट्रेची ने लिखा था कि ये लोग विदेशी हैं, हिंदुओं से बिलकुल मेल नहीं रखते और अंग्रेजों के दोस्त हो सकते हैं. जिन्ना जैसे नेता शायद इसीलिए मानते थे कि जब तक अंग्रेज़ भारत में रहें, मुसलमानों के लिए बेहतर होगा. हक़ीक़त तो यह है कि अंग्रेजों के दोस्त न तो हिंदू थे और न ही मुसलमान.

(Source विकिपीडिया और अन्य संसाधन)

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