मुंशी अंसार हुसैन : (सिसौना से संभल तक)
प्रारम्भिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि :-
मुंशी अंसार हुसैन का जन्म सन 1920 ईसवी में सिसौना गांव में हुआ था! वह मोलवी इनायत अली खान के परपोते व बहार हुसैन के छोटे पुत्र थे! बहार हुसैन के तीन पुत्र और एक पुत्री हुई! उनके पुत्रों का नाम क्रमशः जब्बार हुसैन, ज़ुल्फ़िकार हुसैन और अंसार हुसैन था व पुत्री का नाम दिलबरी बेगम था ! बड़े पुत्र जब्बार हुसैन की अपने जन्म के कुछ समय पश्चात मृत्यु हो गई थी!
बहार हुसैन के पास छोटी सी
पुश्तैनी खेती बाडी थी उसी के सहारे उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश की ! वालिद बहार हुसैन की मृत्यु जल्दी होने की वजह से, घर के बड़े बेटे मुंशी ज़ुल्फ़िकार हुसैन पर अपने छोटे भाई-बहन की
परवरिश की ज़िम्मेदारी आ गई ! और अपनी लगन और मेहनत से वह शिक्षा विभाग में सरकारी टीचर बन गए और पास ही के गांव गंगपुर में
अपनी सेवाएं देने लगे ! उन्होंने बहन दिलबरी बेगम की शादी संभल में ही जहीर हुसैन से कर दी व अपने छोटे भाई अंसार हुसैन को भी उन्होंने सरकारी नौकरी
के लिए मार्ग दर्शन किया और कुछ समय पश्चात, मुंशी अंसार हुसैन भी
गंगपुर गांव में प्राथमिक विद्यालय में
सरकारी टीचर पद पर नियुक्त हो गये !
और इस तरह दोनों भाइयों की अपनी लगन और मेहनत से शिक्षा विभाग में
सरकारी नौकरी हो गई !
मगर अंसार हुसैन बचपन से ही काफी निडर व उसूलों वाले इंसान
थे! वह भी अपने परदादा मोलवी इनायत अली खान की तरह दुनियावी तालीम से ज़्यादा दीनी तालीम करने पर ज़ोर देते थे!
पारिवारिक व व्यवसायिक संघर्ष :-
अंसार हुसैन ने अपनी नौकरी की शुरुआत गंगपुर गांव से की उसके बाद स्योंडारा तहसील बिलारी, ग्राम पंचायत रुदैइन जो उस समय बदायूं ज़िले में आता था वहां से एक प्राइमरी अध्यापक के रूप में प्रविष्टि हुई ! उस समय के स्कूलों में भ्रष्टाचार, बच्चो को ट्यूशन देना, समय पर बच्चों की कोर्स पूरा न करने जैसी बीमारियां भी मौजूद थी! मुंशी अंसार हुसैन इस तरह के माहौल के सख्त खिलाफ थे! और बच्चों को स्कूल के साथ ट्यूशन लेने पर मजबूर करना भी उनको गवारा नहीं था, वह न तो खुद ट्यूशन पढ़ाते थे और जो दूसरे अध्यापक ट्यूशन पढ़ाते थे उनके भी वह सख्त खिलाफ थे, जिसकी वजह से ज़्यादातर अध्यापक उनको पसंद नहीं करते थे! अध्यापकों को लगता था की न तो ये खुद अतिरिक्त इनकम करते हैं और न हमें करने देते हैं!
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मुंशी अंसार हुसैन (अपने घर में टहलते हुए) |
क्यूंकि अंसार हुसैन बचपन से ही काफी ईमानदार और उसूल वादी इंसान थे तो वो दूसरों को भी इसी रूप में देखना पसंद करते थे!
अपने महकमे से वह इंसाफ के लिए अपने जीवन के महत्वपूर्ण 29 साल (29 years) तक मुकदमा लड़ते रहे!
1975 में इमरजेंसी काल के दौरान, आबादी को रोकने के लिए नसबंदी अभियान चलाया गया था! नसबंदी के लिए उस समय की इंदिरा गांधी सरकार की तरफ से कुछ जुल्म और अत्याचार भी हुए जिससे पूरा देश त्राहिमाम कर उठा था। तो उन्होंने, आयरन महिला के नाम से मशहूर इंदिरा गांधी के कानून को मानने से भी इंकार कर दिया और अपनी गिरफ़्तारी देने के लिए पुलिस महकमे भी पहुंचे हालाँकि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया इस तरह वह उस समय की सरकार और अपने महकमे के लिए एक चुनौती साबित हुए!
सम्भल प्रस्थान (स्थानान्तरण) :-
आपने संभल में साबिरा बेगम से शादी की अपनी शादी के बाद, सिर्फ तीन जोड़ी कपड़ो को तहमद में बांधकर सिसौना से संभल का सफर तय किया हालाँकि उनके बड़े भाई (मुंशी ज़ुल्फ़िकार हुसैन) नहीं चाहते थे कि वह गांव छोड़कर संभल जाएँ ! मगर आपकी (अंसार हुसैन) नौकरी भी जा चुकी थी और गाँव में रोज़गार के भी ज़्यादा अवसर नहीं थे और इसी बीच वह अपने महकमे से मुकदमा भी लड़ रहे थे शायद इन्हीं सब परेशानियों का सामना करने की वजह से उन्होंने संभल आकर बसने का फैसला लिया होगा !
मगर संभल आने के पश्चात भी उन्हें अपनी जीविका चलाने के
लिए काफी संघर्ष करना पड़ा! जीविका चलाने के लिए, आपने कभी चौकोनी
गाँव से घी लाकर संभल में बेचा तो कभी साप्ताहिक अखबारात बेचे! मगर
ज़िन्दगी की जंग और जद्दो-जहद में हमेशा खुद को बनाए रखा | उनकी
कोशिशों और जद्दो-जहद का ही नतीजा था कि उन्होंने अपने सबसे बड़े लड़के हफ़ीज़ उर रहमान का दाखिला रामपुर
मर्कजी दर्सगाह-ए-इस्लामी स्कूल में करवाया और उसके बाद जमीअतुल फलाह आजमगढ़
बिलरियागंज में ! ग़ुरबत
के दौर में भी बच्चों की दीनी और दुनियावी तालीम पर उन्होंने बखूबी ध्यान दिया
!
मुक़दमे में जीत (अस्सी का दशक) :-
फिर आया
सं 80 का दशक
जहाँ से उनकी ज़िंदगी के मुश्किल दिनों ने पलटना शुरू किया | सं 1982 में
उनके बड़े पुत्र हफ़ीज़ उर रहमान नौकरी करने सऊदी अरब चले गये और घर की आर्थिक स्थिति
को दुरुस्त करने के लिए उन्होंने वहां से पैसा भेजना शुरू किया वहीँ
दूसरी तरफ ज़िंदगी की मुश्किलों से झूझते हुए सन 1984 में (मुंशी अंसार हुसैन ने) आपने अपने
महकमे से मुकदमा भी जीत
लिया!
फिर आया सं 80 का दशक जहाँ से उनकी ज़िंदगी के मुश्किल दिनों ने पलटना शुरू किया | सं 1982 में उनके बड़े पुत्र हफ़ीज़ उर रहमान नौकरी करने सऊदी अरब चले गये और घर की आर्थिक स्थिति को दुरुस्त करने के लिए उन्होंने वहां से पैसा भेजना शुरू किया वहीँ दूसरी तरफ ज़िंदगी की मुश्किलों से झूझते हुए सन 1984 में (मुंशी अंसार हुसैन ने) आपने अपने महकमे से मुकदमा भी जीत लिया!
इलाहबाद
हाई कोर्ट में फैसले के दिन, वकील ने कहा 29 साल पहले जब ये इंसान यहाँ
आया था तो इसके काले बाल और दाढ़ी थी ! आज ये बुज़ुर्ग हो गया है ! यह
सुनकर जज भी भावुक हो गए और उनके हक़ में फैसला देते हुए उनको 1 लाख 38000 का
मुआवजा भी दिया ! जो की
उस समय के हिसाब से एक क़ाफी बड़ी रकम थी !
पुत्र एवं पुत्रियाँ :-
पुत्र एवं पुत्रियाँ :-
उनके बड़े पुत्र हफ़ीज़ उर रहमान ने सऊदी सरकार के रक्षा मंत्रालय में काम करना शुरू किया। बाद में उन्होंने यूएन के तहत अर्थव्यवस्था और योजना मंत्रालय में काम किया। 1990 के दशक में, उन्हें UNDP में एक शोधकर्ता के रूप में भर्ती किया गया ! उनके अन्य पुत्रों में अतीकुर रहमान, एक समय संभल के नामी उद्योगपति रह चुके हैं! अता उर रहमान - सैफनी (रामपुर) में भारत-गैस एजेंसी मालिक हैं ! अज़ीज़ उर रहमान - सऊदी अरब रियाद में जापान एंबेसी में वीजा सेक्शन में हेड हैं ! ओबैद उर रहमान - इम्पोर्ट एक्सपोर्ट कंपनी (SurTech) के मालिक हैं |
सबसे छोटे पुत्र इनाम उर रहमान, ऑस्ट्रेलिया में एक सफल आई टी प्रोफेशनल हैं और और पिता की याद में उनके ही नाम पर अंसार डिवाइन लाइट स्कूल का संचालन कर रहे हैं |
इसके अलावा उनके पुत्रों के पास किसान भट्टा, अंसार केमिकल्स और हफीज इंडेन
एजेंसी जैसे उद्योग भी हैं !
दीनी अमल और दावत :-
दीन को अपनी ज़िन्दगी में आईने की तरह उतरना दुसरे लोगो को भी दीन की दावत देना कोई उनकी ज़िन्दगी से सीख सकता है ! मरहूम मास्टर बख़्तावर उल्लाह तो आपको वली का दरजा दिया करते थे क्यूंकि ज़िन्दगी का
एक लम्बा सफर उन्होंने आर्थिक तंगी, सामाजिक परेशानियों, आलोचनाओं, अपने टाँग में लगी चोट व बीमारी, सिस्टम व सरकार से लम्बे समय तक मुकदमा लड़ते हुए गुज़ारा !
ग़ुरबत के दौर में भी दीनी अमल और दावत पर बखूबी ध्यान दिया! यहाँ तक की वो शहर की मस्जिदों में नमाज के बाद खड़े हो जाते और दीनी उपदेश देते ! मगर कुछ मस्जिदों के इन्तेज़ामियाँ सदस्यों को उनका ये तरीका नागवार गुज़रा और उनको कुछ मस्जिदों में उपदेश देना भी मुश्किल हो गया ! कुछ लोगो की तरफ से आप पर इल्ज़ाम भी लगा कि इसमें इनका ज़ाती फायदा है मगर उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और अपने काम को जारी रखा ! और उनकी मेहनत और जुनून के आगे सबने घुटन टेक दिए!
सिसौना से लेकर संभल तक कई मस्जिदों और मदरसों के निर्माण और मरम्मत में पैसा इकट्ठा करने की खातिर गाँव दर गाँव और शहर दर शहर घूमे और संभल में मस्जिद तेलियों वाली, नईयों वाली व मस्जिद उमर फ़ारूक के संरक्षण में आपने प्रमुख भूमिका निभाई ! इसी बीच पैसा इकट्ठा करने और अपने मुक़दमे की दौड़ भाग के चक्कर में उनकी टांग में गंभीर चोट भी लग गई थी! सिसौना गांव में मोलवी इनायत अली खान के काल में पुरानी ईंट-मसाले
से बनी मस्जिद के शहीद होने के बाद उसकी फिर से तामीर की गई! जिसके
निर्माण में आपने बड़े पुत्र हफ़ीज़ उर रहमान के साथ मिलकर प्रमुख भूमिका निभाई!
हकीम
रय्यान याद करते हुए बताते हैं की शायद ही कोई इस्तेमा होगा जो उनसे छूटता
होगा! SIO (स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गेनाइजेशन) और
जमाते इस्लामी के कई
कार्यक्रमों में शिरकत के लिए तीसरी मंज़िल तक भी ऊपर चढ़ जाते! टांग
में चोट रहते हुए भी हर दीनी कार्यक्रम में सबसे पहले पहुँचते और
सबसे आगे बैठते थे!
मृत्यु :-
मृत्यु :-
सन 2001 में अपनी टांग में लगी पुरानी चोट में इन्फेक्शन बढ़ने की वजह से महज 81 साल में की उम्र में दुनिया से रुख़स्त हो गये ! और संभल शहर में ही सुपुर्दे खाक हुए ! अपनी मौत से कुछ समय पहले आपने साबिरा बेगम को बुलाया और कहाँ की मेरी ज़िन्दगी अब कश्मकश में है जिस तरह अपने बच्चों की तरबियत मैने की है मेरे बच्चे भी अपने बच्चों को दुनियावी तालीम के साथ-साथ दीन की राह पर आगे बढ़ाएं !
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इस्लामुद्दीन |
मुंशी अंसार हुसैन के उपदेशों और तब्लीग से प्रेरित होकर (इस्लाम क़ुबूल कर चुके) चरण सिंह उर्फ इस्लामुद्दीन आज भी पिछले 25 सालों से उनकी कब्र की देखभाल करते हैं !
आज भी वो 25 साल पहले का वाकया याद करते हुए बताते हैं कि आपके दफन के कुछ दिन बाद (इस्लामुद्दीन) उनकी कब्र पर गए तो तो तेज़ बारिश होने की वजह से क़ब्र की मिट्टी हट गई और आपके जनाज़े का कफ़न दिखाई दे रहा था मगर खास बात ये थी कि दफ़न होने के इतने दिन बाद भी वो कफ़न कहीं से भी गन्दा नहीं था और उसमे एक खास किस्म की चमक थी ! जिसे देखकर आस पास लोग जमा हो गए व उनकी कब्र पर दोबारा मिट्टी डाली गई |
शायद ये उनके अपनी ज़िन्दगी के आमाल की वजह होगी की मृत्यु के पश्चात् भी आपका जिस्म और कफ़न सुरक्षित रहा !